Sunday, July 11, 2010

सेठानी जोहङे से

वक्त की आँधियों से रूपान्तरित टीलों

के मध्य स्थित समतल भूमि में-

पूर्ण वैभव, दिव्य सादगी में

विनित स्वागतोत्सुक-

सेठानी का जोहङ

कोमल हृदय की अनुकृति उदार

जल में धङकनों का स्पंदन

किसी सम्राट-साम्राज्ञी की आत्मकेन्द्रित अनुकृति नहीं

स्व के पर हेतु उत्सर्ग की विराट चेष्टा

स्मृति हृद्य की उदारता, सौन्दर्य की

वर्षों से-

सूरज निहारता रहा है यौवन

सितारों की गुफ्तगू में शरमाकर

चाँद भी उतरता रहा होगा

प्यासे पशु, पक्षी, राहगीर को

देता रहा है-

तृप्ति, विश्राम, सुकून,

लोगों की मनोकामनाओं को संबल।

बांधा है परिवेश को-

विशिष्ट संस्कृति में,

एक दिन मैं भी काट दिया जाऊंगा

वक्त की बेरहम आरी से

किसी सूखे ठूंठ हो चुके पेङ की तरह

पर-

जब तक रहेगा जोहङ

सेठ-सेठानी की उदारता,

उतरती रहेगी

बुजुर्ग सीढियों से युवा धरातल पर,

सूरज निहारता रहेगा यौवन

शरमाकर उतरता रहेगा

चाँद।।


ऐतिहासिक सेठानी जोहङे की सफाई 2 राज बटालियन एन. सी. सी.,चूरू









































Monday, July 5, 2010

मिणत

ठेठ

गांव रो

भोळो माणस

निपजाऊ

बणा”र राखै

मन रो खेत,

तोपै बीज

भलै विचारां रा,

निपजावै

हाङ-तोङ मिणत सूं

ईमान,सादगी,सरळता

री फसल।

जे ऊग आवै

छळ, कपट

अर

ऊंचो दीखंण री हूँस रो

अळसू-पळसू,

तो बचावै.. फसल

कर'र

संस्कारां रै कसीयै

सू निनांण।

फेरूं ई नीं बरसै

हेत रो बादळ,

कदे-ई मारज्या

अपसंस्कृति रो पाळो

अर कदे-ई लागज्या

बेबसी-लाचारी

कमजोरी-गरीबी रा

लट, कातरा…

फसल

होज्या चौपट

अर बिच्‍यारै रो खेत

रैयज्या

खाली रो खाली।।

Friday, July 2, 2010

साइकिल-समय की जरूरत

सभी छायाचित्र व अखबार की कटिंग हेतु मित्र दुलाराम सहारण-इन दिनों का हृदय से आभार-

साइकिल अभियान की शुरूआत को मीडिया का उत्साहजनक समर्थन.....राजस्थान पत्रिका व दैनिक भास्कर के साथ स्थानीय अखबारों में प्रमुखता के साथ अभियान को स्थान दिया गया-






























































साइकिल-समय की जरूरत

साइकिल-समय की जरूरत



ये कम्यूनिटी उन सभी साथियों का स्वागत करती है जो पर्यावरण संरक्षण,ऊर्जा के संसाधनों की बचत व स्वस्थ भारत के निर्माण हेतु साइकिल से अपने कार्यस्थलों पर जाते है व दैनिक जीवन में साइकिल के प्रयोग को बढावा देते है। 1 जुलाई,2010 को शुरू अभियान के कुछ दृश्य-



Thursday, June 24, 2010

खाली हाथ





हर रोज सुबह सूरज आकर

दिन का व्यापार फैलाता है।

लाभ हानि की बांध पोटली

वह पहाङी से ढल जाता है।।

सुबह से सुख दोपहर का दु:ख

शाम में आकर मिल जाता है।

सब   हाथ   की   लकीर  बनकर,

मुट्ठी रातों में बन्ध जाता है।।

पीङा का पतझङ भी आता

और   सुखों का   सावन भी।

सत्य, अटूट ये सिलसिला

कौन इससे  बच पाता है।।

हरियाली से शहर यहां है

और मरूस्थल गाँव बहुत।

किसी के हिस्से में सौगाते

किसी का दामन रीता भी।।

ऋतुओं से बहु धर्म-जातियां

रात दिन से   भेद बहुत,पर-

प्रकृति के नियम अटल है

कौन सदा यहां जी पाता है।।

मानव-मानव में हो समता

उस पार साथ क्या जाता है?

Sunday, June 20, 2010

कथा जारी है...

सदियों से,

कथा जारी है-

दो

सहमी कबूतर आँखें

भयाक्रांत

खूंखार बिल्ली आँखों से,

लपलपाती साँप जीभे

डसती रही

अतीत,अस्तित्व,

सपनों के घौंसले पर

पैनी निगाहें

बाज की,

अंधा-बहरा अजगर

निगलता

हिस्से की

धरती-आकाश

हवा-धूप,

फिर भी-

बन्दिशें

कब रोक सकी

बैचेन बादल को

प्यासी धरती पर

बरसने से।।

Wednesday, June 16, 2010

सत्यापन

आवेदन-पत्र जमा करवाने की अन्तिम तिथि के दिन वह आठ बजे ही खिङकी के पास आकर खङा हो गया ताकि दोपहर तक  वापिस गाँव लौट सके। साढे दस बजे खिङकी खुलते ही उसने समस्त संलग्न दस्तावेज के साथ आवेदन-पत्र बाबू की तरफ सरका दिया। बिना आय प्रमाणित के अधूरा आवेदन-पत्र स्वीकार नही किया जा सकता, कहते हुए बाबू ने आवेदन-पत्र वापिस लौटा दिया। उसने सक्षम अधिकारी का प्रमाण-पत्र संलग्न बताया,पर बाबू के पास उसकी दलील सुनने का वक्त नही था, पीछे की अंधी-बहरी भीङ ने उसे निकाल बाहर किया। पास ही खङे कुछ नेता टाइप छात्र उसे एक तरफ ले जाकर समझाने लगे , शाम तक घूमता रहेगा तो भी कोई सत्यापित करने वाला नही मिलेगा, उन्होंने जेब से मोहर निकाली........उसके सामने मां की नसीहते, विद्यालय के गुरूजी , किताब के  नैतिकता वाले पाठ, अनमोल वचन  आकर खङे हो गये। वह अपना आवेदन-पत्र लेकर वहां से खिसक लिया। वह महाविद्यालय में कार्यरत व्याख्याताओं के पास जाता है सबकी अपनी व्यस्तताएं ,दलीले व मजबूरियां थी। वह अस्पताल, कलेक्ट्रेट परिसर जाता है..लेकिन सब जगह मजबूरी खङी मुस्करा रही थी। आवेदन-पत्र जमा करवाने की अन्तिम तिथि......शाम के चार बजने वाले थे.....अजनबी शहर......गाँव जाने वाली अन्तिम बस...... वह बुझे मन, भारी कदमों से महाविद्यालय की ओर लौट आता है......वहां खङे छात्र नेता मुस्करा कर उसके हाथ से आवेदन-पत्र  छीनकर सत्यापित कर देते है.....वह कांपते हाथों से आवेदन-पत्र खिङकी से बाबू को  देता है....बाबू उसकी तरफ मुस्करा कर  देखता है और पावती रसीद उसके हाथों में रख देता है। रसीद देखता वह अनचाही, अज्ञात-सी खुशी के साथ बस स्टेन्ड की ओर बढ जाता है... आखिर  व्यवस्था के प्रथम कदम  का सफलतापूर्वक   सत्यापन हो गया था।।

Monday, June 14, 2010

इन्तजार

तुम!

अहं से भरे-

अनन्त आकांक्षा से युक्त,

समेट लेना चाहते हो सब,

परिधि में।

वो-

अनुरोध, आवश्यकता, अधिकार,

से तुम्हें देखती है-

तुम्हारी दृष्टि-

उसकी थाती है।

तुम्हारे इशारे-

लाते जीवन में मौसम।

पुलकित यौवन,

अनुराग के फूल से

महकती है फिजा,

अलौकिक सौन्दर्य,

असीम तृप्ति से भर-

स्नेह सिक्त नेत्रों से देखती है-

तुम्हें।

प्यार के क्षणों में तुम भी तो उतर आते हो-

मिट जाता है भेद।

कितनी शीतल,

स्निग्ध हो उठती है-

वह।

बदलना तुम्हारी फितरत है-

तुम्ही लाते हो-

पतझङ, उष्णता,...

वो बेरंग,बेनूर हो जाती है,

उठते है बवण्डर,

भीतर का ताप-

फूट उठता है ज्वालामुखी बन,

लावे के रूप में बह जाती है-

भावनाएं।

जानती है-

सीमा.. सृजन.. सृष्टि..

सहेज अपने दु:ख,

वो-

फिर करती है-

मौसम के बदलने का,

इन्तजार!!!

Friday, June 11, 2010

पागल


बीते कुछ सालों के अकाल के घावों का दर्द वह भूल गया था। चने की भरपूर फसल देखती उसकी भोली आँखों में परमात्मा के लिए कोई शिकायत न थी। वहां थे तो कुछ छोटे, तिक्त, विवशता भरे सपने....। मन में कई दृश्य तेजी से बदल रहे थे- कभी वह अपनी  बेटियों को शादी का कवच पहनाकर बचाता नागफनी आँखों से, कभी द्रोपदी के चीर की तरह बढ रहे महाजन के कर्ज को चुकाता, कभी बरसात, धूप, सर्दी में साथ छोङती छत को बदलता, कभी कई पैबन्द लगे कवच की तरह चिपके कपङो की जगह नये कपङों में दुल्हन-सी शरमाती पत्नी को देखता, कभी स्वयं की जूतियों से बाहर निकल चिढाती अँगुलियों को फिर कैद करना चाहता। कितने ही दृश्य उसकी आँखों मे तैर रहे थे...कई सालों से मुरझाये उस के मन में चने लहलहा रहे थे......उल्लास में भरकर वह अपने खेत में बैठ जाता है..चने की भरी फसल को दुलारता है.....सहसा रात की हाङ गलाने वाली हवा उसके मन में बिजली सी कौंधती है..काँपते हाथों से वह घेघरी दबा कर देखता है..पट...फिर दूसरी पट... पट..पट....पट..पट................................................................................................................................................................................................................

शहर में एक पागल की चर्चा जोरो पर है जो कहीं भी बीच सङक बैठ पट पट की आवाज कर चिल्लाने लगता है।।

शिमला

नमस्कार,
              मित्रों,
                   कुछ दिनों के बाद फिर वापसी कर रहा हूँ। पूरी तरह छुट्टियों पर रहा, अपने आप से ही बातें करता, अपने में ही डूबा, अत: सम्पर्क की सम्भावना भी न के बराबर थी। पुन: सभी मित्रों का अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है-




1


आँखों का पीलापन

बदल रहा था

आहिस्ता-आहिस्ता

हरेपन में

बालू कठोर होकर

तब्दील हो गई

पहाङों में

मरूस्थल की वीरानी

भर रही थी

स्प्रू, देवदारू से

धरा के मुकुट-सी सुशोभित

मानव बस्तियां

प्राकृतिक सौन्दर्य का हार ले

स्वागतोत्सुक थी

पहाङों की रानी

शिमला।।

2


संध्यासुन्दरी-

बादल रथ पर सवार

उतर आसमान से

देवदार के मखमली बिस्तर पर

सो गई,

बूढा सूरज शरमाकर

पहाङी की ओट में

चला गया,

सौन्दर्य से अभिभूत

अपलक निहारते

जुगनू बल्ब,

ऊषा सुन्दरी के विरह में

प्रतीक्षारत डबडबाते तारे,

चाँद खिङकी

के रास्ते उतर

सीने में मुंह छुपा सो गया

लिहाफ उठाकर देखा

स्मित हास के साथ

फैली हुई थी

चाँदनी।।



5

अलौकिक

पहाङी सौन्दर्य,

स्मृतियों को

अंकित कर अपने

मानस पटल में

लेता हूँ विदा

पीछे मुङकर देखा

वहां मेरा कोई निशान न था

सहसा याद आई मरुभूमि

कितना प्रेम देती है वह

असीम श्रद्धा से भर

सोचता हूँ

हे बालू तू ही मेरी अपनी है

क्षणभर के लिए ही सही

सहेजती तो है

मेरे कदमों के

निशान।।

Saturday, May 29, 2010

एक सार्थक प्रयास-2



साइकिल-समय की जरूरत

ये कम्यूनिटी उन सभी साथियों का स्वागत करती है जो पर्यावरण

संरक्षण,ऊर्जा के संसाधनों की बचत व स्वस्थ भारत के निर्माण हेतु

साइकिल से अपने कार्यस्थलों पर जाते है व दैनिक जीवन में

 साइकिल के प्रयोग को बढावा देते है। कम्यूनिटी से जुङे सभी

साथियों के छायाचित्र "एक सार्थक प्रयास" पोस्ट में प्रकाशित है

 साथ ही "साइकिल समुदाय" नाम से स्क्रीन पर प्रदर्शित है-






राजकीय लोहिया महाविद्यालय शैक्षणिक उत्कृष्टता के साथ



विभिन्न सांस्कृतिक व सृजनात्मक गतिविधियों का केन्द्र रहा है।यहाँ



 के व्याख्याता भी सदैव नये दृष्टिकोण व विचारों का स्वागत करते



 है।महाविद्यालय का स्टाफ रूम वैचारिक,बौद्धिक बहस का केन्द्र



 बिन्दु होता है। इन बहसों मे महाविदयालय से लेकर विश्व 



 घटनाक्रम समाहित होता है। हाल के दिनों मे बहस का ज्वलंत मुद्दा



 वैश्विक स्तर पर हो रहे पर्यावरण परिवर्तन से संबंधित था। पृथ्वी



 के तापमान मे निरन्तर हो रही बढोतरी,इसी परिप्रेक्ष्य मे आयोजित



 होने वाले विभिन्न सम्मेलन,इन्टर गवर्नमेन्टल पैनल आन



 क्लाइमेन्ट चेन्ज की रिपोर्ट,पिघलते ग्लेशियर,वैश्विक स्तर पर हो रहे



 मौसमी परिवर्तन,अतिवृष्टि व अल्पवृष्टि,प्रदूषित होती नदियां,



 निरन्तर घटते वन व वन्यजीव,कार्बन उत्सर्जन और इन सब के



 बीच दूरदर्शन के विज्ञापन में मासूमियत के साथ सवाल करता एक



बच्चा कि-'"आप इस तरह पेट्रोल खर्च करोगे तो भविष्य के लिए



 पेट्रोल बचेगा ही नहीं।"



        इन बहसों में समस्याओं के सभी पहलुओं पर विचार ही नहीं



 किया जाता वरन् इस दिशा मे सार्थक कार्य,समाधान भी प्रस्तुत



 किये जाते है। वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु संबंधी परिवर्तन,



पर्यावरण प्रदूषण,व उर्जा के संसाधनो मे निरन्तर कमी मानव जाति



 के लिए चिन्ता का विषय है। इस दिशा मे वैश्विक स्तर पर किये



 जा रहे प्रयास नाकाफी है। समय की माँग है कि आज प्रत्येक



 व्यक्ति  अपने स्तर पर भी इस दिशा मे सार्थक प्रयास  करे। इसी



 तथ्य को ध्यान मे रखकर समान विचारधारा व रचनात्मक  सोच



 वाले,महाविद्यालय के संवेदनशील व्याख्याता सामूहिक निर्णय करते



 है कि वे अगले सत्र में महाविद्यालय मे साइकिल से ही आयेंगे।



 इस तरह ये सभी साथी सेव प्लेनेट अर्थ,पर्यावरण संरक्षण व



 भविष्य के लिए ऊर्जा बचत की मुहिम मे सहयोग करेंगे।छठे वेतन



 आयोग के बाद जहाँ कारों का प्रचलन बढा है और लोग भौतिकता



 की और आकृष्ट है ऐसे मे ये निर्णय साहसिक है। साथियों के



 सम्मुख चुनौतिया तो बहुत है पर असली चुनौती तो चुरू का मौसम
 है
             सेव प्लेनेट अर्थ,पर्यावरण संरक्षण,ऊर्जा बचत इस मुहिम का



 प्रमुख लक्ष्य है पर साइकिल के अप्रत्यक्ष लाभ भी नजरअन्दाज नहीं



 किये जा सकते। इसके आर्थिक व शारीरिक पहलू भी आकर्षित



 करते है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लगभग 115 कर्मचारी व



3200 नियमित विद्यार्थियों वाले इस महाविद्यालय मे और लोग भी



 प्रेरित होकर इस अभियान का हिस्सा बने..........और फिर



 महाविद्यालय की परिधि से बाहर निकल यह अभियान अन्य लोगों



 की प्रेरणा बने तभी इसकी सार्थकता है। वैसे भी मिलों लम्बे सफर



 की शुरूआत प्रथम कदम से ही होती है-









आओ कॉलेज चले हम...

नयी उम्मीदे,  नयी उमंगे,


लेकर   इक   नया  पैगाम,


आओ   कॉलेज चले  हम।


एक  एक मिल जुङे कङी,

बन जाये जन का सैलाब,

आओ   कॉलेज  चले हम।

पेट्रोल भी तो    बचाना   है,

प्रदूषण को भी मिटाना है,

हरी-भरी   हो   धरा  भरपूर,

महके हर दिशा में गुलाब,

आओ   कॉलेज चले   हम।

बदला मौसम,गर्माती धरती,

पिघलने  लगे है ग्लेशियर,

बढ  रहा  कार्बन उत्सर्जन,

जन-जन  हो  जाए  चेतन,

आओ   कॉलेज  चले हम।

स्वस्थ हो तन और   मन,

बचे पेट्रोल और बढे  धन,

जोशीला हो भारत महान,

दिखे सब मजबूत जवान,

आओ  कॉलेज  चले   हम।

साइकिल आज की    शान,


साइकिल  है मेरी पहचान,


करे   साइकिल   का प्रचार,


होकर साइकिल पर सवार-


आओ   कॉलेज  चले हम।।




Friday, May 28, 2010

बिखरे रंग








कभी धूप,  कभी साया-

जो मिला अपना लिया।

जिन्दगी - ए- जिन्दगी,

तुझको, मैने पा लिया।।



खुशी,दर्द,सदमें,मुसीबते,

नफरते,  प्यार,   सभी।

हर मौसम के अनुकूल,

मैने खुद को ढाल लिया।।



खुशियों की नदियां भी थी,

और दु:खों के पर्वत भी।

जो भी मिला राह में तेरी,

सबको गले लगा लिया।।



घोर अकेली राते भी थी,

कभी भरे-भरे से थे दिन।

उदासी व मोद को मैने,

गीतों में गुनगुना लिया।।



मुसीबतों   की   आँधी में,

नजर चुराते लोग देखे।

भीतर की टूटन को मैने,

कागज पर उतार लिया।



जिन्दगी तू छोङ पीछे,

एक दिन बढ जायेगी।

गम नहीं हर रस को तेरे,

रूह तक समा लिया।।

Wednesday, May 26, 2010

तेरी याद.......


तेरी याद........



 तेरी यादों के साये में, ये दिल बेचैन रहता है।

  कभी दश्त, कभी सहरा, कभी घर में रहता है।।



पलके खोलता जब भी, सामने तू आ जाती है।

  आँखों मे  दर्ज उसकी, इक तेरा अक्स रहता है।।



बेवफा तू नही है, उसे शिकायत है बस इतनी।

क्यूं हाथों की लकीरों में, भाग्य बन्द रहता है।।



तू  बनके मखमली ख्वाब-सी,  आती है रातों में।

उसे है डर जमाने का, वो आँखे खोले रहता है।।



तेरी खामोशी से लबों पर,  पहरा है जमाने का।

वो रातों में तारों से,  इशारों में कुछ कहता है।।




तेरा मिलकर उससे दूर जाना बस कयामत था।

एक नि:शब्द  झरना-सा  सदा उसमें बहता है।।



मुमकिन  है तुम कभी  अब लौट के न आओ।

 इक  "उम्मीद"  पर वो सदा  सजदे में रहता है।।

Tuesday, May 25, 2010

कर्म


कर्म


पैबन्द लगी,

टूटी सङक पर-

मरियल-सी खांसती मोटर,

पहुँचाती है मेरे गाँव में।

टेढी-मेढी, कमर टूटी,

रेंगती हुई गलियां है।

दम तोङता जर्जर कुआं-

बुझाता  सबकी प्यास।

थकी-सी आती है बिजली,

कभी-कभी

शहर की चकाचौध,

भीङ से दूर।

बदलते जमाने के कुछ सालों ने

बहुत बदला है मेरे गाँव को-

खाते बदलाव के थपेङे-

मेरे गाँव के मेहनतकश लोग,

जुगाङ भर कर पाते

दो जून की रोटी-

खपा स्वयं को खेतों में।

पर-

खेत कहां रह गये है खेत,

लगते है-

तब्दील होते कब्र-से।

चिपके पेट-

दु:ख बतियाते पीठ को।

ख्वाबों सजे, झुरियों भरे,

चेहरे में लटक कर

रह गया है-

बेटी के ब्याह का सपना।

आसमान में-

चाँद होकर टंग गई,

मेरे गाँव की रोटी।

पत्थराती है हर बरस-

बारिश के इन्तजार में,

मेरे गाँव की आँखे।

नहीं देखे नगर-महानगर,

मेरे गाँव के लोगो ने,

कहां जानते वे-

थियेटर-मॉल,

लेबल लगी ब्रान्डेड चीजों को,

कहां समझ पाते वे-

बिल्कुल फ्रेश फ्रिज से निकली

मल्टीप्लेक्स सिनेमा की नई पीढी को,

नहीं देखी-

मेकअप सजी-

इठलाती सङको को,

अनजान है वे-

आलीशान कोठी,

भोंपू वाले कारखाने,

चीखती-चिल्लाती मोटरों में

गढमढाते तुंदियल पेटों को,

नही जानते वे-

खाया जाता-

बर्गर-पिज्जा भी,

ग्लोबल वार्मिग,कार्बन उत्सर्जन,प्रदूषण,

लगते किसी चिङिया के नाम से।

बेखबर वे,

शिकार है-  

क्षुद्र,कुत्सित,मानवीय स्वार्थ के

नगरीय जाल के।

बस............
वे जी रहे है

अपने कर्मों का फल मानकर

आँसू पी रहे है।।

Saturday, May 22, 2010

पुल टूट रहे है..........2



अपसंस्कृति की बाढ में, रिश्ते बेगाने लगते है।

इस भीङ में सब चेहरे, बस अनजाने लगते है।।

अपने-अपने  जंगल के,  सब  मोगली  हो गये।

खुद का फलसफा सच्चा, बाकी बेमाने लगते है।।

मसीहा के इन्तजार में, पत्थर हो गई है आँखे।

बेवफा भगवान नहीं, कुछ कर्म पुराने लगते है।।

मानवता दम तोङती नजर आ जाती हर कहीं।

तुम चलो आगे पीछे हम,लोग सयाने लगते है।।

नई सोच,रचनात्मक बातें, है जोश से भरपूर।

उम्मीद मानवता की,कुछ लोग दीवाने लगते है।।

Sunday, May 16, 2010

मृगतृष्णा






मृगतृष्णा


भीतर का-

सूनापन,

पसरा है मरुभूमि में-

रेत के टीलों सा-

वीरान।

दूर-दूर तक कहीं नहीं,

आशा रूपी हरियाली।

सूरज-सी परिस्थितियां-

जलाती है,

करती है संतप्त।

मरूस्थल तङप उठता है,

भीतर की बैचेनी-

भ्रमाती है-

मृगतृष्णा बन।

उठता है-

आशाओं का बवण्डर,

फैल जाता है दूर-दूर तक-

किसी बूंद की तलाश में,

पर कहां मिटती है-

बूंदों से प्यास!

अतृप्त मरूस्थल लेता है-

रूप तूफान का,

उङ आसमान में-

बांहों में समेटकर -

बादल को,

पी लेता है रस।

मरूस्थल-

तृप्त, शान्त,

उग आती है हरियाली-

आशायें पाती है विस्तार।

फिर चर जाते है-

समय रूपी जानवर

मिट जाती है हरियाली,

सूख जाता है-

स्नेह रूपी जल।

मरूस्थल फिर तङप उठता है-

हो जाता है खूंखार-

किसी बादल के-

इन्तजार में।।

Saturday, May 15, 2010

अनवरत

अनवरत


सुबह नींद से

जागते ही

पहुँच जाते है-

प्रशिक्षित कदम

बाहर बरामदे में,

एकत्रित कर सभी

अखबारों को

खो जाता हूँ।

मुखपृष्ठ पर छपी-

नक्सल हमले की शिकार

बस को देखता हूँ-

कुछ दिनों पूर्व मारे गये पुलिसकर्मियों के शव

आँखों में तिर जाते है,

उनके परिवार के

बिलखते चेहरे,

टूट चुके सपने,

सामने आकर खङे हो जाते है।

सेना और मुख्यधारा......

एक चाय की चुस्की में,

गटक जाता हूँ- संवेदनाएं, आक्रोश।

रूख कर लेता हूँ-

अगली खबर की ओर

दुर्घटना में मारे गये

लोगों की तस्वीरे,

मुँह से निकले शब्दों के साथ

टंग जाती है कहीं।

दहेज की बलि

किसी विवाहिता का

स्वर्ग का ख्वाब-

झूलता है फंदे पर।

दरकते रिश्ते-

करते है संघर्ष,

पुराने संस्कार और ऊंची आकांक्षाओं

के बीच।

भ्रष्टाचार

दिखाता है खोखली हो चुकी

जङों को।

इन सब के बीच

बदलाव का

राग अलापते-

चित्रों में छाये नेता।

खबरों के साथ

बदलते है हाव-भाव,

पेशानी पर खिंचती है-

कुछ दर्द की लकीरें,

अन्दर की बैचेनी-

चाहती है बदलाव।

बोझ को लिए

प्रशिक्षित कदम

खुद-ब-खुद चल पङते है

बाथरूम की ओर

अन्दर की अकुलाहट

बह जाती है पानी में

तरोताजा जुट जाता हूँ

दिन की गतिविधियों में

और

अखबार बढाता है-

रद्दी का वजन।।