मिट्टी
जाने कब से-
वो मुझमें समाया है,
किसी प्रेत की तरह।
मैं कब वो हो जाता हूँ-
जान ही नहीं पाता,
और कभी वो मुझसे बाहर निकल,
खो जाता है-
अपनी ही दुनियां में।
मुझे लगता है वो भी,
उसी मिट्टी का बना है-
जिसे वो मनचाहा आकार देता रहा है।
इतने वर्षों में कभी
बोलते हुए नही सुना मैने उसे
शायद उस की जीभ भी
मिट्टी की बनी हो,
जो आवा में तपकर लाल हो गई,
और उसे डर है कि
बोलने पर दाँतों से टकराकर
वह टूट जायेगी।
वर्षों बीतने पर भी उसका,
मुझमे आना बदस्तूर जारी है-
बचपन में गाँव की
गलियों में खेलते हुए,
कब मैं-
उसके घर की देहरी से
अन्दर झांकते हुए,
उसे चाक पर
बर्तन बनाते हुए देखता हूँ।
और फिर तो अनाज के बदले
कभी-
घङे,सुराही,छोटे बर्तन,
दीपावली पर दीपक,
गोगा जी के घोङे देने
आ धमकता था वह,
साथ में लम्बा घूंघट निकाले,
कई सारे बच्चों को साथ लेकर,
उसकी घरवाली।
जिसे देखकर मुझे लगा करता था कि-
उसने वो बच्चे एक साथ ही दिए होंगे।
कभी मैं उसके घर पहुँच जाता-
और उसे-
मिट्टी को मनचाहा आकार
देते हुए देखता।
मुझे लगता मिट्टी से वो
जो चाहे वह वस्तु बना लेता होगा-
यहां तक कि पैसा भी।
उसकी बाजरे की रोटी भी
मुझे मिट्टी से बनी लगा करती थी।
आज मुझे ये बातें हास्यास्पद लगती है,
पर उसका आना जारी है-
उसे जरूरी लगता है-
मुझ तक सूचनाएं पहुँचाना।
असमय मिट्टी हो जाना घरवाली का,
शादी के कुछ समय बाद ही
मिट्टी हो जाना बेटी का,
और धीरे-धीरे मिट्टी हो जाना
आस-पास की पूरी दुनियां का,
सबसे बढकर स्वयं का मिट्टी हो जाना,
उसकी मिट्टी की आँखे सोख लेती है-
अपने में ही आँसुओं को।
आज उसका मुझमें होना,
सहज नहीं रहने देता मुझे-
पिछले कई वर्षों को
देखकर लगता है-
वह चाक पर खङा एक ही स्थान पर
घूम रहा है।
हर कहीं नजर आ जाता है वो-
बच्चों के खिलौनो में,
चिलचिलाती धूप में प्यास बुझाती
ठण्डी बोतलों में,
बाजार में खरीददारी करते,
वस्तुओं की कीमतों में,
दीपावली में रोशनी से नहाए
शहर को देखकर, और
कहीं मुश्किल से दिखाई दिए
दीपक की लौ को देखकर-
मुझे लगता है कि वो भी अब
पककर लाल हो गया है-
मैं चिल्लाता हूँ....
अब वह जरा सी चोट पर-
टूट कर बिखर जायेगा।
मैं चिल्लाता हूँ.........
हङबङाहट में उठकर
बैठ जाता हूँ-
पत्नी के शब्द
कानों मे पङते है....
आज फिर कोई बुरा सपना देखा क्या?
मैं कमरे की प्रत्येक वस्तु को ध्यान से
देखता हूँ -
वहां कहीं मिट्टी न थी,
तय नही कर पाता
वो सपना था या.................
फिर...
अपनी ओर ताकती पत्नी को देखकर
मैँ मुँह फेर लेता हूँ
कहीं वो देख ना ले
मेरी आँखों मे फैली हुई...
काली काँप वाली
मिट्टी।।
2 comments:
मुझे लगता मिट्टी से वो
जो चाहे वह वस्तु बना लेता होगा-
यहां तक कि पैसा भी।
उसकी बाजरे की रोटी भी
मुझे मिट्टी सी लगा करती थी।
आज मुझे ये बातें हास्यास्पद लगती है,
पर उसका आना जारी है-
उसे जरूरी लगता है-
मुझ तक सूचनाएं पहुँचाना।
असमय मिट्टी हो जाना घरवाली का,
शादी के कुछ समय बाद ही
मिट्टी हो जाना बेटी का,
और धीरे-धीरे मिट्टी हो जाना
आस-पास की पूरी दुनियां का,
सबसे बढकर स्वयं का मिट्टी हो जाना,
उसकी मिट्टी की आँखे सोख लेती है-
अपने में ही आँसुओं को।
आज उसका मुझमें होना,
सहज नहीं रहने देता मुझे-
panktiyo ko pad ker hraday dravit or aankhe nam ho gai ,,bahut hi savedan sheel katha hai ,
mitti ka jag sara ,mitti mai hi khota hai ....koi khilana hasta hai koi ro deta hai ....mitti se hi ladta hai ,fir mitti mitti hota hai
असमय सब कुछ का मिट्टी हो जाना सचमुच त्रासद है पर यही वास्तविकता भी है.आपने इस पीड़ा की अनुभूति को शब्दों में बहुत अच्छी तरह संप्रेषित किया है.पत्नी की ताकती नज़रों से मुंह चुराना भी सामाजिक संबंधों की यथार्थ स्थिति को दर्शाता है,किसी "सार्त्र" को ही "सिमोन द बुए" का साथ नसीब होता है.अच्छा लिख रहे हैं,शुभ कामनाएं.
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