Thursday, June 24, 2010

खाली हाथ





हर रोज सुबह सूरज आकर

दिन का व्यापार फैलाता है।

लाभ हानि की बांध पोटली

वह पहाङी से ढल जाता है।।

सुबह से सुख दोपहर का दु:ख

शाम में आकर मिल जाता है।

सब   हाथ   की   लकीर  बनकर,

मुट्ठी रातों में बन्ध जाता है।।

पीङा का पतझङ भी आता

और   सुखों का   सावन भी।

सत्य, अटूट ये सिलसिला

कौन इससे  बच पाता है।।

हरियाली से शहर यहां है

और मरूस्थल गाँव बहुत।

किसी के हिस्से में सौगाते

किसी का दामन रीता भी।।

ऋतुओं से बहु धर्म-जातियां

रात दिन से   भेद बहुत,पर-

प्रकृति के नियम अटल है

कौन सदा यहां जी पाता है।।

मानव-मानव में हो समता

उस पार साथ क्या जाता है?

Sunday, June 20, 2010

कथा जारी है...

सदियों से,

कथा जारी है-

दो

सहमी कबूतर आँखें

भयाक्रांत

खूंखार बिल्ली आँखों से,

लपलपाती साँप जीभे

डसती रही

अतीत,अस्तित्व,

सपनों के घौंसले पर

पैनी निगाहें

बाज की,

अंधा-बहरा अजगर

निगलता

हिस्से की

धरती-आकाश

हवा-धूप,

फिर भी-

बन्दिशें

कब रोक सकी

बैचेन बादल को

प्यासी धरती पर

बरसने से।।

Wednesday, June 16, 2010

सत्यापन

आवेदन-पत्र जमा करवाने की अन्तिम तिथि के दिन वह आठ बजे ही खिङकी के पास आकर खङा हो गया ताकि दोपहर तक  वापिस गाँव लौट सके। साढे दस बजे खिङकी खुलते ही उसने समस्त संलग्न दस्तावेज के साथ आवेदन-पत्र बाबू की तरफ सरका दिया। बिना आय प्रमाणित के अधूरा आवेदन-पत्र स्वीकार नही किया जा सकता, कहते हुए बाबू ने आवेदन-पत्र वापिस लौटा दिया। उसने सक्षम अधिकारी का प्रमाण-पत्र संलग्न बताया,पर बाबू के पास उसकी दलील सुनने का वक्त नही था, पीछे की अंधी-बहरी भीङ ने उसे निकाल बाहर किया। पास ही खङे कुछ नेता टाइप छात्र उसे एक तरफ ले जाकर समझाने लगे , शाम तक घूमता रहेगा तो भी कोई सत्यापित करने वाला नही मिलेगा, उन्होंने जेब से मोहर निकाली........उसके सामने मां की नसीहते, विद्यालय के गुरूजी , किताब के  नैतिकता वाले पाठ, अनमोल वचन  आकर खङे हो गये। वह अपना आवेदन-पत्र लेकर वहां से खिसक लिया। वह महाविद्यालय में कार्यरत व्याख्याताओं के पास जाता है सबकी अपनी व्यस्तताएं ,दलीले व मजबूरियां थी। वह अस्पताल, कलेक्ट्रेट परिसर जाता है..लेकिन सब जगह मजबूरी खङी मुस्करा रही थी। आवेदन-पत्र जमा करवाने की अन्तिम तिथि......शाम के चार बजने वाले थे.....अजनबी शहर......गाँव जाने वाली अन्तिम बस...... वह बुझे मन, भारी कदमों से महाविद्यालय की ओर लौट आता है......वहां खङे छात्र नेता मुस्करा कर उसके हाथ से आवेदन-पत्र  छीनकर सत्यापित कर देते है.....वह कांपते हाथों से आवेदन-पत्र खिङकी से बाबू को  देता है....बाबू उसकी तरफ मुस्करा कर  देखता है और पावती रसीद उसके हाथों में रख देता है। रसीद देखता वह अनचाही, अज्ञात-सी खुशी के साथ बस स्टेन्ड की ओर बढ जाता है... आखिर  व्यवस्था के प्रथम कदम  का सफलतापूर्वक   सत्यापन हो गया था।।

Monday, June 14, 2010

इन्तजार

तुम!

अहं से भरे-

अनन्त आकांक्षा से युक्त,

समेट लेना चाहते हो सब,

परिधि में।

वो-

अनुरोध, आवश्यकता, अधिकार,

से तुम्हें देखती है-

तुम्हारी दृष्टि-

उसकी थाती है।

तुम्हारे इशारे-

लाते जीवन में मौसम।

पुलकित यौवन,

अनुराग के फूल से

महकती है फिजा,

अलौकिक सौन्दर्य,

असीम तृप्ति से भर-

स्नेह सिक्त नेत्रों से देखती है-

तुम्हें।

प्यार के क्षणों में तुम भी तो उतर आते हो-

मिट जाता है भेद।

कितनी शीतल,

स्निग्ध हो उठती है-

वह।

बदलना तुम्हारी फितरत है-

तुम्ही लाते हो-

पतझङ, उष्णता,...

वो बेरंग,बेनूर हो जाती है,

उठते है बवण्डर,

भीतर का ताप-

फूट उठता है ज्वालामुखी बन,

लावे के रूप में बह जाती है-

भावनाएं।

जानती है-

सीमा.. सृजन.. सृष्टि..

सहेज अपने दु:ख,

वो-

फिर करती है-

मौसम के बदलने का,

इन्तजार!!!

Friday, June 11, 2010

पागल


बीते कुछ सालों के अकाल के घावों का दर्द वह भूल गया था। चने की भरपूर फसल देखती उसकी भोली आँखों में परमात्मा के लिए कोई शिकायत न थी। वहां थे तो कुछ छोटे, तिक्त, विवशता भरे सपने....। मन में कई दृश्य तेजी से बदल रहे थे- कभी वह अपनी  बेटियों को शादी का कवच पहनाकर बचाता नागफनी आँखों से, कभी द्रोपदी के चीर की तरह बढ रहे महाजन के कर्ज को चुकाता, कभी बरसात, धूप, सर्दी में साथ छोङती छत को बदलता, कभी कई पैबन्द लगे कवच की तरह चिपके कपङो की जगह नये कपङों में दुल्हन-सी शरमाती पत्नी को देखता, कभी स्वयं की जूतियों से बाहर निकल चिढाती अँगुलियों को फिर कैद करना चाहता। कितने ही दृश्य उसकी आँखों मे तैर रहे थे...कई सालों से मुरझाये उस के मन में चने लहलहा रहे थे......उल्लास में भरकर वह अपने खेत में बैठ जाता है..चने की भरी फसल को दुलारता है.....सहसा रात की हाङ गलाने वाली हवा उसके मन में बिजली सी कौंधती है..काँपते हाथों से वह घेघरी दबा कर देखता है..पट...फिर दूसरी पट... पट..पट....पट..पट................................................................................................................................................................................................................

शहर में एक पागल की चर्चा जोरो पर है जो कहीं भी बीच सङक बैठ पट पट की आवाज कर चिल्लाने लगता है।।

शिमला

नमस्कार,
              मित्रों,
                   कुछ दिनों के बाद फिर वापसी कर रहा हूँ। पूरी तरह छुट्टियों पर रहा, अपने आप से ही बातें करता, अपने में ही डूबा, अत: सम्पर्क की सम्भावना भी न के बराबर थी। पुन: सभी मित्रों का अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है-




1


आँखों का पीलापन

बदल रहा था

आहिस्ता-आहिस्ता

हरेपन में

बालू कठोर होकर

तब्दील हो गई

पहाङों में

मरूस्थल की वीरानी

भर रही थी

स्प्रू, देवदारू से

धरा के मुकुट-सी सुशोभित

मानव बस्तियां

प्राकृतिक सौन्दर्य का हार ले

स्वागतोत्सुक थी

पहाङों की रानी

शिमला।।

2


संध्यासुन्दरी-

बादल रथ पर सवार

उतर आसमान से

देवदार के मखमली बिस्तर पर

सो गई,

बूढा सूरज शरमाकर

पहाङी की ओट में

चला गया,

सौन्दर्य से अभिभूत

अपलक निहारते

जुगनू बल्ब,

ऊषा सुन्दरी के विरह में

प्रतीक्षारत डबडबाते तारे,

चाँद खिङकी

के रास्ते उतर

सीने में मुंह छुपा सो गया

लिहाफ उठाकर देखा

स्मित हास के साथ

फैली हुई थी

चाँदनी।।



5

अलौकिक

पहाङी सौन्दर्य,

स्मृतियों को

अंकित कर अपने

मानस पटल में

लेता हूँ विदा

पीछे मुङकर देखा

वहां मेरा कोई निशान न था

सहसा याद आई मरुभूमि

कितना प्रेम देती है वह

असीम श्रद्धा से भर

सोचता हूँ

हे बालू तू ही मेरी अपनी है

क्षणभर के लिए ही सही

सहेजती तो है

मेरे कदमों के

निशान।।