हर रोज सुबह सूरज आकर
दिन का व्यापार फैलाता है।
लाभ हानि की बांध पोटली
वह पहाङी से ढल जाता है।।
सुबह से सुख दोपहर का दु:ख
शाम में आकर मिल जाता है।
सब हाथ की लकीर बनकर,
मुट्ठी रातों में बन्ध जाता है।।
पीङा का पतझङ भी आता
और सुखों का सावन भी।
सत्य, अटूट ये सिलसिला
कौन इससे बच पाता है।।
हरियाली से शहर यहां है
और मरूस्थल गाँव बहुत।
किसी के हिस्से में सौगाते
किसी का दामन रीता भी।।
ऋतुओं से बहु धर्म-जातियां
रात दिन से भेद बहुत,पर-
प्रकृति के नियम अटल है
कौन सदा यहां जी पाता है।।
मानव-मानव में हो समता
उस पार साथ क्या जाता है?