Friday, February 11, 2011

कथा जारी है...

मृगतृष्णा




भीतर का-

सूनापन,

पसरा है मरुभूमि में-

रेत के टीलों सा-

वीरान........

दूर दूर तक कहीं नहीं

आशा रूपी हरियाली...

सूरज सी परिस्थितियां

जलाती है,

करती है संतप्त।

मरूस्थल तङप उठता है,

भीतर की बैचेनी-

भ्रमाती है-

मृगतृष्णा बन,

उठता है-

आशाओं का बवण्डर,

फैल जाता है दूर दूर तक-

किसी बूंद की तलाश में,

पर कहां मिटती है-

बूंदों से प्यास,

अतृप्त मरूस्थल लेता है-

रूप तूफान का,

उङ आसमान में

बांहों में समेटकर -

बादल को,

पी लेता है रस....

मरूस्थल-

तृप्त... शान्त...

उग आती है हरियाली

आशायें पाती है विस्तार,

फिर चर जाते है

समय रूपी जिनावर

मिट जाती है हरियाली

सूख जाता है-

स्नेह रूपी जल,

मरूस्थल फिर तङप उठता है-

हो जाता है खूंखार-

किसी बादल के

इन्तजार में।।

3 comments:

kshama said...

Marusthalka manzar jeevit ho utha!

Maheshwari Kaneri said...

आप का ब्लांग देखा आप की कविता पढ़ी दोनों ही अति सुन्दर मेरे ब्लांग मे आप का स्वागत है.कभी पधारे.
धन्य बाद.

maheshwari kaneri said...

आप का ब्लांग देखा आप की कविता पढ़ी दोनों ही अति सुन्दर मेरे ब्लांग मे आप का स्वागत है.कभी पधारे.