Saturday, May 29, 2010

एक सार्थक प्रयास-2



साइकिल-समय की जरूरत

ये कम्यूनिटी उन सभी साथियों का स्वागत करती है जो पर्यावरण

संरक्षण,ऊर्जा के संसाधनों की बचत व स्वस्थ भारत के निर्माण हेतु

साइकिल से अपने कार्यस्थलों पर जाते है व दैनिक जीवन में

 साइकिल के प्रयोग को बढावा देते है। कम्यूनिटी से जुङे सभी

साथियों के छायाचित्र "एक सार्थक प्रयास" पोस्ट में प्रकाशित है

 साथ ही "साइकिल समुदाय" नाम से स्क्रीन पर प्रदर्शित है-






राजकीय लोहिया महाविद्यालय शैक्षणिक उत्कृष्टता के साथ



विभिन्न सांस्कृतिक व सृजनात्मक गतिविधियों का केन्द्र रहा है।यहाँ



 के व्याख्याता भी सदैव नये दृष्टिकोण व विचारों का स्वागत करते



 है।महाविद्यालय का स्टाफ रूम वैचारिक,बौद्धिक बहस का केन्द्र



 बिन्दु होता है। इन बहसों मे महाविदयालय से लेकर विश्व 



 घटनाक्रम समाहित होता है। हाल के दिनों मे बहस का ज्वलंत मुद्दा



 वैश्विक स्तर पर हो रहे पर्यावरण परिवर्तन से संबंधित था। पृथ्वी



 के तापमान मे निरन्तर हो रही बढोतरी,इसी परिप्रेक्ष्य मे आयोजित



 होने वाले विभिन्न सम्मेलन,इन्टर गवर्नमेन्टल पैनल आन



 क्लाइमेन्ट चेन्ज की रिपोर्ट,पिघलते ग्लेशियर,वैश्विक स्तर पर हो रहे



 मौसमी परिवर्तन,अतिवृष्टि व अल्पवृष्टि,प्रदूषित होती नदियां,



 निरन्तर घटते वन व वन्यजीव,कार्बन उत्सर्जन और इन सब के



 बीच दूरदर्शन के विज्ञापन में मासूमियत के साथ सवाल करता एक



बच्चा कि-'"आप इस तरह पेट्रोल खर्च करोगे तो भविष्य के लिए



 पेट्रोल बचेगा ही नहीं।"



        इन बहसों में समस्याओं के सभी पहलुओं पर विचार ही नहीं



 किया जाता वरन् इस दिशा मे सार्थक कार्य,समाधान भी प्रस्तुत



 किये जाते है। वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु संबंधी परिवर्तन,



पर्यावरण प्रदूषण,व उर्जा के संसाधनो मे निरन्तर कमी मानव जाति



 के लिए चिन्ता का विषय है। इस दिशा मे वैश्विक स्तर पर किये



 जा रहे प्रयास नाकाफी है। समय की माँग है कि आज प्रत्येक



 व्यक्ति  अपने स्तर पर भी इस दिशा मे सार्थक प्रयास  करे। इसी



 तथ्य को ध्यान मे रखकर समान विचारधारा व रचनात्मक  सोच



 वाले,महाविद्यालय के संवेदनशील व्याख्याता सामूहिक निर्णय करते



 है कि वे अगले सत्र में महाविद्यालय मे साइकिल से ही आयेंगे।



 इस तरह ये सभी साथी सेव प्लेनेट अर्थ,पर्यावरण संरक्षण व



 भविष्य के लिए ऊर्जा बचत की मुहिम मे सहयोग करेंगे।छठे वेतन



 आयोग के बाद जहाँ कारों का प्रचलन बढा है और लोग भौतिकता



 की और आकृष्ट है ऐसे मे ये निर्णय साहसिक है। साथियों के



 सम्मुख चुनौतिया तो बहुत है पर असली चुनौती तो चुरू का मौसम
 है
             सेव प्लेनेट अर्थ,पर्यावरण संरक्षण,ऊर्जा बचत इस मुहिम का



 प्रमुख लक्ष्य है पर साइकिल के अप्रत्यक्ष लाभ भी नजरअन्दाज नहीं



 किये जा सकते। इसके आर्थिक व शारीरिक पहलू भी आकर्षित



 करते है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लगभग 115 कर्मचारी व



3200 नियमित विद्यार्थियों वाले इस महाविद्यालय मे और लोग भी



 प्रेरित होकर इस अभियान का हिस्सा बने..........और फिर



 महाविद्यालय की परिधि से बाहर निकल यह अभियान अन्य लोगों



 की प्रेरणा बने तभी इसकी सार्थकता है। वैसे भी मिलों लम्बे सफर



 की शुरूआत प्रथम कदम से ही होती है-









आओ कॉलेज चले हम...

नयी उम्मीदे,  नयी उमंगे,


लेकर   इक   नया  पैगाम,


आओ   कॉलेज चले  हम।


एक  एक मिल जुङे कङी,

बन जाये जन का सैलाब,

आओ   कॉलेज  चले हम।

पेट्रोल भी तो    बचाना   है,

प्रदूषण को भी मिटाना है,

हरी-भरी   हो   धरा  भरपूर,

महके हर दिशा में गुलाब,

आओ   कॉलेज चले   हम।

बदला मौसम,गर्माती धरती,

पिघलने  लगे है ग्लेशियर,

बढ  रहा  कार्बन उत्सर्जन,

जन-जन  हो  जाए  चेतन,

आओ   कॉलेज  चले हम।

स्वस्थ हो तन और   मन,

बचे पेट्रोल और बढे  धन,

जोशीला हो भारत महान,

दिखे सब मजबूत जवान,

आओ  कॉलेज  चले   हम।

साइकिल आज की    शान,


साइकिल  है मेरी पहचान,


करे   साइकिल   का प्रचार,


होकर साइकिल पर सवार-


आओ   कॉलेज  चले हम।।




Friday, May 28, 2010

बिखरे रंग








कभी धूप,  कभी साया-

जो मिला अपना लिया।

जिन्दगी - ए- जिन्दगी,

तुझको, मैने पा लिया।।



खुशी,दर्द,सदमें,मुसीबते,

नफरते,  प्यार,   सभी।

हर मौसम के अनुकूल,

मैने खुद को ढाल लिया।।



खुशियों की नदियां भी थी,

और दु:खों के पर्वत भी।

जो भी मिला राह में तेरी,

सबको गले लगा लिया।।



घोर अकेली राते भी थी,

कभी भरे-भरे से थे दिन।

उदासी व मोद को मैने,

गीतों में गुनगुना लिया।।



मुसीबतों   की   आँधी में,

नजर चुराते लोग देखे।

भीतर की टूटन को मैने,

कागज पर उतार लिया।



जिन्दगी तू छोङ पीछे,

एक दिन बढ जायेगी।

गम नहीं हर रस को तेरे,

रूह तक समा लिया।।

Wednesday, May 26, 2010

तेरी याद.......


तेरी याद........



 तेरी यादों के साये में, ये दिल बेचैन रहता है।

  कभी दश्त, कभी सहरा, कभी घर में रहता है।।



पलके खोलता जब भी, सामने तू आ जाती है।

  आँखों मे  दर्ज उसकी, इक तेरा अक्स रहता है।।



बेवफा तू नही है, उसे शिकायत है बस इतनी।

क्यूं हाथों की लकीरों में, भाग्य बन्द रहता है।।



तू  बनके मखमली ख्वाब-सी,  आती है रातों में।

उसे है डर जमाने का, वो आँखे खोले रहता है।।



तेरी खामोशी से लबों पर,  पहरा है जमाने का।

वो रातों में तारों से,  इशारों में कुछ कहता है।।




तेरा मिलकर उससे दूर जाना बस कयामत था।

एक नि:शब्द  झरना-सा  सदा उसमें बहता है।।



मुमकिन  है तुम कभी  अब लौट के न आओ।

 इक  "उम्मीद"  पर वो सदा  सजदे में रहता है।।

Tuesday, May 25, 2010

कर्म


कर्म


पैबन्द लगी,

टूटी सङक पर-

मरियल-सी खांसती मोटर,

पहुँचाती है मेरे गाँव में।

टेढी-मेढी, कमर टूटी,

रेंगती हुई गलियां है।

दम तोङता जर्जर कुआं-

बुझाता  सबकी प्यास।

थकी-सी आती है बिजली,

कभी-कभी

शहर की चकाचौध,

भीङ से दूर।

बदलते जमाने के कुछ सालों ने

बहुत बदला है मेरे गाँव को-

खाते बदलाव के थपेङे-

मेरे गाँव के मेहनतकश लोग,

जुगाङ भर कर पाते

दो जून की रोटी-

खपा स्वयं को खेतों में।

पर-

खेत कहां रह गये है खेत,

लगते है-

तब्दील होते कब्र-से।

चिपके पेट-

दु:ख बतियाते पीठ को।

ख्वाबों सजे, झुरियों भरे,

चेहरे में लटक कर

रह गया है-

बेटी के ब्याह का सपना।

आसमान में-

चाँद होकर टंग गई,

मेरे गाँव की रोटी।

पत्थराती है हर बरस-

बारिश के इन्तजार में,

मेरे गाँव की आँखे।

नहीं देखे नगर-महानगर,

मेरे गाँव के लोगो ने,

कहां जानते वे-

थियेटर-मॉल,

लेबल लगी ब्रान्डेड चीजों को,

कहां समझ पाते वे-

बिल्कुल फ्रेश फ्रिज से निकली

मल्टीप्लेक्स सिनेमा की नई पीढी को,

नहीं देखी-

मेकअप सजी-

इठलाती सङको को,

अनजान है वे-

आलीशान कोठी,

भोंपू वाले कारखाने,

चीखती-चिल्लाती मोटरों में

गढमढाते तुंदियल पेटों को,

नही जानते वे-

खाया जाता-

बर्गर-पिज्जा भी,

ग्लोबल वार्मिग,कार्बन उत्सर्जन,प्रदूषण,

लगते किसी चिङिया के नाम से।

बेखबर वे,

शिकार है-  

क्षुद्र,कुत्सित,मानवीय स्वार्थ के

नगरीय जाल के।

बस............
वे जी रहे है

अपने कर्मों का फल मानकर

आँसू पी रहे है।।

Saturday, May 22, 2010

पुल टूट रहे है..........2



अपसंस्कृति की बाढ में, रिश्ते बेगाने लगते है।

इस भीङ में सब चेहरे, बस अनजाने लगते है।।

अपने-अपने  जंगल के,  सब  मोगली  हो गये।

खुद का फलसफा सच्चा, बाकी बेमाने लगते है।।

मसीहा के इन्तजार में, पत्थर हो गई है आँखे।

बेवफा भगवान नहीं, कुछ कर्म पुराने लगते है।।

मानवता दम तोङती नजर आ जाती हर कहीं।

तुम चलो आगे पीछे हम,लोग सयाने लगते है।।

नई सोच,रचनात्मक बातें, है जोश से भरपूर।

उम्मीद मानवता की,कुछ लोग दीवाने लगते है।।

Sunday, May 16, 2010

मृगतृष्णा






मृगतृष्णा


भीतर का-

सूनापन,

पसरा है मरुभूमि में-

रेत के टीलों सा-

वीरान।

दूर-दूर तक कहीं नहीं,

आशा रूपी हरियाली।

सूरज-सी परिस्थितियां-

जलाती है,

करती है संतप्त।

मरूस्थल तङप उठता है,

भीतर की बैचेनी-

भ्रमाती है-

मृगतृष्णा बन।

उठता है-

आशाओं का बवण्डर,

फैल जाता है दूर-दूर तक-

किसी बूंद की तलाश में,

पर कहां मिटती है-

बूंदों से प्यास!

अतृप्त मरूस्थल लेता है-

रूप तूफान का,

उङ आसमान में-

बांहों में समेटकर -

बादल को,

पी लेता है रस।

मरूस्थल-

तृप्त, शान्त,

उग आती है हरियाली-

आशायें पाती है विस्तार।

फिर चर जाते है-

समय रूपी जानवर

मिट जाती है हरियाली,

सूख जाता है-

स्नेह रूपी जल।

मरूस्थल फिर तङप उठता है-

हो जाता है खूंखार-

किसी बादल के-

इन्तजार में।।

Saturday, May 15, 2010

अनवरत

अनवरत


सुबह नींद से

जागते ही

पहुँच जाते है-

प्रशिक्षित कदम

बाहर बरामदे में,

एकत्रित कर सभी

अखबारों को

खो जाता हूँ।

मुखपृष्ठ पर छपी-

नक्सल हमले की शिकार

बस को देखता हूँ-

कुछ दिनों पूर्व मारे गये पुलिसकर्मियों के शव

आँखों में तिर जाते है,

उनके परिवार के

बिलखते चेहरे,

टूट चुके सपने,

सामने आकर खङे हो जाते है।

सेना और मुख्यधारा......

एक चाय की चुस्की में,

गटक जाता हूँ- संवेदनाएं, आक्रोश।

रूख कर लेता हूँ-

अगली खबर की ओर

दुर्घटना में मारे गये

लोगों की तस्वीरे,

मुँह से निकले शब्दों के साथ

टंग जाती है कहीं।

दहेज की बलि

किसी विवाहिता का

स्वर्ग का ख्वाब-

झूलता है फंदे पर।

दरकते रिश्ते-

करते है संघर्ष,

पुराने संस्कार और ऊंची आकांक्षाओं

के बीच।

भ्रष्टाचार

दिखाता है खोखली हो चुकी

जङों को।

इन सब के बीच

बदलाव का

राग अलापते-

चित्रों में छाये नेता।

खबरों के साथ

बदलते है हाव-भाव,

पेशानी पर खिंचती है-

कुछ दर्द की लकीरें,

अन्दर की बैचेनी-

चाहती है बदलाव।

बोझ को लिए

प्रशिक्षित कदम

खुद-ब-खुद चल पङते है

बाथरूम की ओर

अन्दर की अकुलाहट

बह जाती है पानी में

तरोताजा जुट जाता हूँ

दिन की गतिविधियों में

और

अखबार बढाता है-

रद्दी का वजन।।


पुल टूट रहे है..........





पुल टूट रहे है.......


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 ऐ खुदा  इस  दौर में  इन्सान को क्या हो गया।
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  औकात जिसकी जर्रे की, वो भी मकां हो गया।।
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पसन्द  है   झूठ   के आवरण में लिपटे रहना।

सच बोलना इस दौर में, बस गुनाह हो गया।।
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लहलहाती थी कभी मोहब्बतों की फसले यहां।

उस  जगह अब नफरतों  का    सैलाब हो गया।।
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सत्य,  संयम,  सादगी, ईमान, बिकते बाजार में।

 गिरगिट जैसे लोग मिलना, अब आम हो गया।।
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महकता था कभी रिश्तों की खुशबू से जो घर।

 खामोश-सा, वीरान-सा,   ईंटों का मकां हो गया।।
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कंधे बैठ जिसके सीखा था जिन्दगी का सबक।

वो फटा  पुराना   बेकार सा     पायदान हो गया।।
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सजती  है   हरबार वो बनने किसी की हमसफर।

  उसे टूटकर फिर से जुङने का  अभ्यास हो गया।।
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आओ  मिटा दे सब फासले,  ढहा दे दीवारे सभी।

 इक इस "उम्मीद" से मेरी,   रोशन जहां हो गया।।


Friday, May 14, 2010

बात



बात तो बात ही होती है
धीरे-धीरे दबे पाँव
आकर-
फुसफुसाती है-
कानों में,
बनाती है-
रिश्तों के मध्य पुल,
मिलाती है अजनबियों को,
तोङती है सन्नाटों को,
बुनती है रिश्तों के जाल
और
कभी खींच देती है-
संबंधों के बीच लकीरें
कभी बना देती है-
बूंद को समुद्र,
संचालित करती है-
संसार के समस्त
व्यापार,
और
आवेगों को
देती है अभिव्यक्ति,
मानव मर्त्य है-
बात सनातन
आखिर
पीढियां गुजर जाती है
रह जाती है बस
बात।।

Monday, May 10, 2010

कथा जारी है....1 (समय-सरगम)




समय-सरगम



सतत् विकासमान्-

इस सृष्टि में मेरा उद्भव ,

लाखों वर्ष पूर्व आवृत-बीजी काल में हुआ।

फूल और फलों के साथ,

वसुधा अपार वैभव से भर उठी।

प्रकृति रागात्मकता के साथ मंगल के

गीत गाती थी।

मन्द-मन्द बहती बयार,

कलकल करती नदियां,

शीश उठाकर वनों में झांकते पर्वत,

गर्जना करते सागर,

धरा पर उमङने को आतुर बादल,

संसार की कालिमा हरने का प्रण लिए सूरज,

दूर गगन में चिर प्रतीक्षारत तारागण,

चाँदनी के आँचल में छुपता चाँद,

सभी का साक्षी रहा हूँ मैं-

मानव की उत्पति से वर्तमान तक की

विकास यात्रा-

पीढियों से दर्ज है रेशे-रेशे में मेरी।

मैने देखा है-

निरीह,निर्लिप्त,निश्छल और सहमे हुए

मानव को महामानव बनते हुए-

कला,साहित्य,दर्शन,विज्ञान की प्रगति को,

अग्नि,पहिये से लेकर अंतरिक्ष को नाप लेने वाले अविष्कारों को,

मानव की दुनियां को मुट्ठी मे कर लेने की छटपटाहट को,

कभी न समाप्त होने वाली तितिक्षा को,

जिसकी पूर्ति के निमित्त उसने-

धरा व मानव को बांट दिया-

देश,धर्म,जाति,रंग,लिंग,घर

और न जाने कितने वर्गों में।

मेरी विकास यात्रा तो मानव से भी पहले की है-

मानव की उत्पति से पहले मेरी पीढियां,

न जाने कितने ही पतझङ देख चुकी है।

मानव के साथ-साथ मैने भी-

सरस्वती नदी के आब में सिंचित

शस्य-श्यामल भरपूर खेतों मे

आनन्द उत्सव मनाया,

और फिर देखा प्रकृति का रौद्र रूप भी -

जिसमें विलीन हो गई-

सरस्वती सहित मानव सभ्यता

और फैल गया-

रेत का विशाल समुद्र।

पर मैं खङा रहा सीना ताने-

बारिश के इन्तजार में मुरझाते पत्तों,

सूखती टहनियों को सांत्वना देते हुए।

तेज आंधियां और लू के थपेङो को भी,

समभाव से सहते हुए-

स्वयं को अनुकूलित करते हुए-

अपने ही में पैदा कर कसैला तेल,

बचाता रहा स्वयं को कीटों के आक्रमण से।

मैं जानता था कि समय के साथ नही चलने पर

मैं भी विलीन हो जाऊंगा-

रेत के महा समुन्द्र में,

जिसमे दफन है-

मानव सभ्यता की कई कहानियां।

मानव के जीवन को संवारने में-

पीढियां शहीद होती रही है मेरी।

उसे सुन्दर,सुविधापूर्ण बनाना ही मिशन रहा है-

हमारी जाति का।

प्रतिकूलताओं के बाद भी

लाल, पीले और संतरी रंग के फूल खिला-

मैं मरूभूमि का श्रृंगार कर,

मानव मन को हर्षित करता रहा हूँ ।

ये फूल रंजक के रूप में भी उपयोगी रहे है।

पत्तियों का काढा करता रहा है पाचन रोगों का निदान।

पर आज मै संघर्षरत हूँ अपना ही वजूद बचाने में।

जिस मानव के जीवन को संवारने में,

शहीद हुई पीढियां मेरी,

उसी के क्षुद्र स्वार्थों ने लगा दिया प्रश्नचिह्न-

मेरे अस्तित्व पर।

पर नादान नहीं जानता

मुझसे ही कायम है उसका अस्तित्व,

मैं नहीं रहा तो कौन देगा उसे

प्रतिकूलताओं से लङने का हौसला,

उत्कट जिजीविषा,

और सबसे बढकर अपने जीवन को सार्थक व सुन्दर बनाने का संदेश,

और फिर-

प्रकृति से खिलवाङ तो आमंत्रण देगा ही-

सभ्यता के विनाश को,

जिसका पहले भी साक्षी रहा हूँ मैँ।