Monday, July 5, 2010

मिणत

ठेठ

गांव रो

भोळो माणस

निपजाऊ

बणा”र राखै

मन रो खेत,

तोपै बीज

भलै विचारां रा,

निपजावै

हाङ-तोङ मिणत सूं

ईमान,सादगी,सरळता

री फसल।

जे ऊग आवै

छळ, कपट

अर

ऊंचो दीखंण री हूँस रो

अळसू-पळसू,

तो बचावै.. फसल

कर'र

संस्कारां रै कसीयै

सू निनांण।

फेरूं ई नीं बरसै

हेत रो बादळ,

कदे-ई मारज्या

अपसंस्कृति रो पाळो

अर कदे-ई लागज्या

बेबसी-लाचारी

कमजोरी-गरीबी रा

लट, कातरा…

फसल

होज्या चौपट

अर बिच्‍यारै रो खेत

रैयज्या

खाली रो खाली।।

4 comments:

Gyan Darpan said...

भौत साँची और चौखी अभिव्क्ति !

kshama said...

Kuchh,kuchh samajh payi,lekin jitna samajhi wo bahut sundar hai..

दुलाराम सहारण said...

बहुत ही शानदार अभिव्‍यक्ति है आपकी।

राजस्‍थानी में कविता करने का एक अपना सुख है। परिवेश और भाषा का अदभुत संगम हो आता है।

बधाई।

Pinaakpaani said...

बहुत ही सुन्दर ! उम्मेद जी,सचमुच दिल को छूने वाली रचना.