Friday, June 11, 2010

पागल


बीते कुछ सालों के अकाल के घावों का दर्द वह भूल गया था। चने की भरपूर फसल देखती उसकी भोली आँखों में परमात्मा के लिए कोई शिकायत न थी। वहां थे तो कुछ छोटे, तिक्त, विवशता भरे सपने....। मन में कई दृश्य तेजी से बदल रहे थे- कभी वह अपनी  बेटियों को शादी का कवच पहनाकर बचाता नागफनी आँखों से, कभी द्रोपदी के चीर की तरह बढ रहे महाजन के कर्ज को चुकाता, कभी बरसात, धूप, सर्दी में साथ छोङती छत को बदलता, कभी कई पैबन्द लगे कवच की तरह चिपके कपङो की जगह नये कपङों में दुल्हन-सी शरमाती पत्नी को देखता, कभी स्वयं की जूतियों से बाहर निकल चिढाती अँगुलियों को फिर कैद करना चाहता। कितने ही दृश्य उसकी आँखों मे तैर रहे थे...कई सालों से मुरझाये उस के मन में चने लहलहा रहे थे......उल्लास में भरकर वह अपने खेत में बैठ जाता है..चने की भरी फसल को दुलारता है.....सहसा रात की हाङ गलाने वाली हवा उसके मन में बिजली सी कौंधती है..काँपते हाथों से वह घेघरी दबा कर देखता है..पट...फिर दूसरी पट... पट..पट....पट..पट................................................................................................................................................................................................................

शहर में एक पागल की चर्चा जोरो पर है जो कहीं भी बीच सङक बैठ पट पट की आवाज कर चिल्लाने लगता है।।

3 comments:

Vinay Kumar Vaidya said...

ऎसा नहीं लगता कि यह लघुकथा है, जो किसी ने ''लिखी'' है ।
बल्कि लगता है कि आज के अखबार में लिखी खबर है !
सशक्त रचना और क्या होती है ?

बधाई !!

दुलाराम सहारण said...

बहुत मार्मिक चित्रण प्रस्‍तुत किया है-----
भरत ओळा के राजस्‍थानी कहानी संग्रह 'जीव री जात' की कहानी 'पट' स्‍मरण हो उठी है।

पवन धीमान said...

बहुत मर्मस्पर्शी रचना !