बात तो बात ही होती है
धीरे-धीरे दबे पाँव
आकर-
फुसफुसाती है-
कानों में,
बनाती है-
रिश्तों के मध्य पुल,
मिलाती है अजनबियों को,
तोङती है सन्नाटों को,
बुनती है रिश्तों के जाल
और
कभी खींच देती है-
संबंधों के बीच लकीरें
कभी बना देती है-
बूंद को समुद्र,
संचालित करती है-
संसार के समस्त
व्यापार,
और
आवेगों को
देती है अभिव्यक्ति,
मानव मर्त्य है-
बात सनातन
आखिर
पीढियां गुजर जाती है
रह जाती है बस
बात।।
3 comments:
उम्मेद जी ,बात की बात में आपने " बात "की खूब खबर ली . बतरस की भी न्यारी महिमा है सो लोग चाहे कहते रहें "बातें हैं बातों का क्या " आप बात कहते रहें हम सुनना पसंद करेंगे |
यह रचना बहुत अच्छी लगी, परिपक्व सोच के साथ संतुलित अभिव्यक्ति। तथ्य और कथ्य, मानसिक पथ्य का रूप ले रहे हैं इस रचना में, जी हाँ जो भाव आपने व्यक्त किए हैं वे तथ्य भी हैं, बधाई और स्वागतम्
बातो ही बातो में आप ने बहुत ही गूढ़ बात कह दी.. .....
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