Tuesday, May 25, 2010

कर्म


कर्म


पैबन्द लगी,

टूटी सङक पर-

मरियल-सी खांसती मोटर,

पहुँचाती है मेरे गाँव में।

टेढी-मेढी, कमर टूटी,

रेंगती हुई गलियां है।

दम तोङता जर्जर कुआं-

बुझाता  सबकी प्यास।

थकी-सी आती है बिजली,

कभी-कभी

शहर की चकाचौध,

भीङ से दूर।

बदलते जमाने के कुछ सालों ने

बहुत बदला है मेरे गाँव को-

खाते बदलाव के थपेङे-

मेरे गाँव के मेहनतकश लोग,

जुगाङ भर कर पाते

दो जून की रोटी-

खपा स्वयं को खेतों में।

पर-

खेत कहां रह गये है खेत,

लगते है-

तब्दील होते कब्र-से।

चिपके पेट-

दु:ख बतियाते पीठ को।

ख्वाबों सजे, झुरियों भरे,

चेहरे में लटक कर

रह गया है-

बेटी के ब्याह का सपना।

आसमान में-

चाँद होकर टंग गई,

मेरे गाँव की रोटी।

पत्थराती है हर बरस-

बारिश के इन्तजार में,

मेरे गाँव की आँखे।

नहीं देखे नगर-महानगर,

मेरे गाँव के लोगो ने,

कहां जानते वे-

थियेटर-मॉल,

लेबल लगी ब्रान्डेड चीजों को,

कहां समझ पाते वे-

बिल्कुल फ्रेश फ्रिज से निकली

मल्टीप्लेक्स सिनेमा की नई पीढी को,

नहीं देखी-

मेकअप सजी-

इठलाती सङको को,

अनजान है वे-

आलीशान कोठी,

भोंपू वाले कारखाने,

चीखती-चिल्लाती मोटरों में

गढमढाते तुंदियल पेटों को,

नही जानते वे-

खाया जाता-

बर्गर-पिज्जा भी,

ग्लोबल वार्मिग,कार्बन उत्सर्जन,प्रदूषण,

लगते किसी चिङिया के नाम से।

बेखबर वे,

शिकार है-  

क्षुद्र,कुत्सित,मानवीय स्वार्थ के

नगरीय जाल के।

बस............
वे जी रहे है

अपने कर्मों का फल मानकर

आँसू पी रहे है।।

6 comments:

nilesh mathur said...

उम्मीद जी, कमाल की रचना है, वाकई पढ़कर बहुत अच्छा लगा,
वो नही जानते कि रोटी के अलावा
बर्गर,पिज्जा भी खाया जाता है।
बहुत सुन्दर !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

उम्दा रचना गोठवाल जी

चैन सिंह शेखावत said...

'पैबन्द लगी,
टूटी सङक पर-
मरियल-सी खांसती मोटर,
पहुँचाती है मेरे गाँव में।
टेढी-मेढी, कमर टूटी,
रेंगती हुई गलियां है।'
बहुत सटीक चित्रण है उम्मेद जी.
ग्रामीण भारत की विषमताओं को मार्मिक शैली में उकेरा है आपने.
एक तरफ इंडिया तो दूसरी और भारत.
यथार्थ चित्रण. आभार

Khare A said...

bahut hi sundar rachna,
vyavastha par /system par achcha prahaar kiya hai

badhai/ likhte rahiye

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मेरे गाँव के मेहनतकश लोग,
कर लेते जुगाङ-
दो जून की रोटी-
खपा स्वयं को खेतों में।
पर-
खेत कहां रह गये है खेत,
लगते है-
तब्दील होते कब्र-से।

आहत मन से लिखी रचना मन को छू गयी...

संजय भास्‍कर said...

बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...