Sunday, May 16, 2010

मृगतृष्णा






मृगतृष्णा


भीतर का-

सूनापन,

पसरा है मरुभूमि में-

रेत के टीलों सा-

वीरान।

दूर-दूर तक कहीं नहीं,

आशा रूपी हरियाली।

सूरज-सी परिस्थितियां-

जलाती है,

करती है संतप्त।

मरूस्थल तङप उठता है,

भीतर की बैचेनी-

भ्रमाती है-

मृगतृष्णा बन।

उठता है-

आशाओं का बवण्डर,

फैल जाता है दूर-दूर तक-

किसी बूंद की तलाश में,

पर कहां मिटती है-

बूंदों से प्यास!

अतृप्त मरूस्थल लेता है-

रूप तूफान का,

उङ आसमान में-

बांहों में समेटकर -

बादल को,

पी लेता है रस।

मरूस्थल-

तृप्त, शान्त,

उग आती है हरियाली-

आशायें पाती है विस्तार।

फिर चर जाते है-

समय रूपी जानवर

मिट जाती है हरियाली,

सूख जाता है-

स्नेह रूपी जल।

मरूस्थल फिर तङप उठता है-

हो जाता है खूंखार-

किसी बादल के-

इन्तजार में।।

21 comments:

दुलाराम सहारण said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति।


तात्‍कालिक बोध के कारण खूंखार हो जाना और शाश्‍वत सत्‍य के कारण इंतजार में तड़प उठना, मरुस्‍थल की अपनी विशेषता है।

मृगतृष्‍णा रूपी इस मायावी संसार का हाल किससे छिपा है बंधु !

श्रेष्‍ठ सृजन अनवरत रखें।

सादर।

रचना प्रवेश said...

maru bhumi ki marg trashna ,tadap ,shashvat saty hai ,manav ki magtrashna ke saman ...,jab poori nahi ho pati hai to vyakul ho jata hai manav bhi ,or atrapt aashaye tadap utati he ek bavander ke roop mai tufaan ban ker samne aati hai...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपको पहली बार पढ़ा....ये मृगतृष्णा ...रेगिस्तान...मेरे प्रिय शब्द हैं....सुन्दर रचना

कृपया यहाँ भी आयें

http://geet7553.blogspot.com/

अनामिका की सदायें ...... said...

atripti se tripti aur fir atripti ka ye kaal chakr marusthal k roop me bahut sunder shabdo se ukera.

bahut acchha likhte hain aap.

mere blog par aane ke liye dhanyewad.

Kumar Ajay said...

सशक्त एवं सार्थक लेखन के लिए बधाई ...

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत सुन्दर कविता...प्यारा चित्र भी..बधाई.
_______________
'पाखी की दुनिया' में आज मेरी ड्राइंग देखें...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मरूस्थल फिर तङप उठता है-
हो जाता है खूंखार-
किसी बादल के-
इन्तजार में।।

मरुथल को लेकर सुन्दर अभिव्यक्ति!

स्वाति said...

बेहतरीन सुन्दर कविता

css1973 said...

बेहतरीन ब्लॉग उम्मेद जी,
खूबसूरत कविता.
मरुथल के जज्बातों को दर्शाती सुंदर कविता.
बधाई.

nilesh mathur said...

आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी, कुछ अलग हटकर हैं आपकी रचनाएँ, बहुत अच्छा लगा पढ़कर!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

Kunwar Sa,
Achha likha hai aapne!
Kisi baadal kee intezaar mein.....

Unknown said...

मन कि व्यथा को शब्दों मैं बड़ी ही सुन्दरता से ढला है.....

Shubham Jain said...

bahut sundar abhivyakti...

फ़िरदौस ख़ान said...

अति सुन्दर...

RAJNISH PARIHAR said...

रेगिस्तान और रेतीले धोरों की व्यथा को यहाँ रहने वाला ही जान सकता है ये भी एक जुबान रखते है ,इनकी भी एक तान है जो एक अलग सा मज़ा देती है......

kshama said...

Registaanme hariyali talashti zindgee..! Behad tees samete hue hai yah rachna..!

माधव( Madhav) said...

अच्छी कविता

Nitish Raj said...

अच्छी पेशकश, बहुत ही सृजन प्रस्तुति।

KK Yadav said...

बड़ी दूर की बात कही...मरुस्थल व बादल का दंद यूँ ही चलता रहता है. सुन्दर प्रस्तुति..बधाई.
___________
'शब्द सृजन की ओर' पर आपका स्वागत है !!

Khare A said...

behda gehre bhav hain rachna me
sundar prastuti

badhai

संजय भास्‍कर said...

मरुथल के जज्बातों को दर्शाती सुंदर कविता.
बधाई............