सुबह नींद से
जागते ही
पहुँच जाते है-
प्रशिक्षित कदम
बाहर बरामदे में,
एकत्रित कर सभी
अखबारों को
खो जाता हूँ।
मुखपृष्ठ पर छपी-
नक्सल हमले की शिकार
बस को देखता हूँ-
कुछ दिनों पूर्व मारे गये पुलिसकर्मियों के शव
आँखों में तिर जाते है,
उनके परिवार के
बिलखते चेहरे,
टूट चुके सपने,
सामने आकर खङे हो जाते है।
सेना और मुख्यधारा......
एक चाय की चुस्की में,
गटक जाता हूँ- संवेदनाएं, आक्रोश।
रूख कर लेता हूँ-
अगली खबर की ओर
दुर्घटना में मारे गये
लोगों की तस्वीरे,
मुँह से निकले शब्दों के साथ
टंग जाती है कहीं।
दहेज की बलि
किसी विवाहिता का
स्वर्ग का ख्वाब-
झूलता है फंदे पर।
दरकते रिश्ते-
करते है संघर्ष,
पुराने संस्कार और ऊंची आकांक्षाओं
के बीच।
भ्रष्टाचार
दिखाता है खोखली हो चुकी
जङों को।
इन सब के बीच
बदलाव का
राग अलापते-
चित्रों में छाये नेता।
खबरों के साथ
बदलते है हाव-भाव,
पेशानी पर खिंचती है-
कुछ दर्द की लकीरें,
अन्दर की बैचेनी-
चाहती है बदलाव।
बोझ को लिए
प्रशिक्षित कदम
खुद-ब-खुद चल पङते है
बाथरूम की ओर
अन्दर की अकुलाहट
बह जाती है पानी में
तरोताजा जुट जाता हूँ
दिन की गतिविधियों में
और
अखबार बढाता है-
रद्दी का वजन।।
4 comments:
कुछ ना कर पाने की पीड़ा को बाखूबी शब्दों में ढाला है आपने!
व्यवस्था में बदलाव चाहते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा का प्रभावी चित्रण किया है आपने.
'Prashikshit qadam"..kitni anoothi prastuti hai..!
प्रशिक्षित कदम....और कुछ ना कर पाने कि वेदना ...यूँ ही दिन प्रतिदिन चलती रहती है...सशक्त शब्दों से इस व्यथा को लिखा है..
अन्दर की अकुलाहट
बह जाती है पानी में
तरोताजा जुट जाता हूँ
दिन की गतिविधियों में
और
अखबार बढाता है-
रद्दी का वजन।।
सच्ची बात कही है....
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