अपसंस्कृति की बाढ में, रिश्ते बेगाने लगते है।
इस भीङ में सब चेहरे, बस अनजाने लगते है।।
अपने-अपने जंगल के, सब मोगली हो गये।
खुद का फलसफा सच्चा, बाकी बेमाने लगते है।।
मसीहा के इन्तजार में, पत्थर हो गई है आँखे।
बेवफा भगवान नहीं, कुछ कर्म पुराने लगते है।।
मानवता दम तोङती नजर आ जाती हर कहीं।
तुम चलो आगे पीछे हम,लोग सयाने लगते है।।
नई सोच,रचनात्मक बातें, है जोश से भरपूर।
उम्मीद मानवता की,कुछ लोग दीवाने लगते है।।
10 comments:
achhi rachna...
रिश्तों पर बहुत अच्छी रचना लिखी है...आज सब रिश्ते बेगाने ही हो गए हैं.....
और जो कुछ उम्मीद लगते हैं वो सच ही दीवाने के अलावा क्या हो सकते हैं....बहुत अच्छी रचना...
कृपया अपने ब्लॉग से ताला हटा लें तो आपकी रचना को चर्चा मंच पर लाया जा सकेगा....लिंक लेने में परेशानी हो रही है....कल तक टला हटा दिया गया तो मंगलवार की चर्चा में चर्चा मंच पर आपकी रचना शामिल हो जायेगी
संगीता
सटीक अभिव्यक्ति। सार्थक सम्प्रेषण।
आभार।
aapne achchha likha hai .. badhayi
अच्छी रचना।
रिश्तों के बदलते मूल्यों पर सार्थक अभिव्यक्ति ,बधाई
आपकी यह रचना चर्चा मंच पर ली गयी है
http://charchamanch.blogspot.com/2010/05/163.html
समाज के विसंगतियों पर बहुत सुन्दर रचना ...
पर अंत में उम्मीद की बातें अच्छी लगी !
achhi rachna..doosra sher pasand aayaa..
nice expression
http://madhavrai.blogspot.com/
ek dam satye baat kahi aapne,
badhai
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