समय-सरगम
सतत् विकासमान्-
इस सृष्टि में मेरा उद्भव ,
लाखों वर्ष पूर्व आवृत-बीजी काल में हुआ।
फूल और फलों के साथ,
वसुधा अपार वैभव से भर उठी।
प्रकृति रागात्मकता के साथ मंगल के
गीत गाती थी।
मन्द-मन्द बहती बयार,
कलकल करती नदियां,
शीश उठाकर वनों में झांकते पर्वत,
गर्जना करते सागर,
धरा पर उमङने को आतुर बादल,
संसार की कालिमा हरने का प्रण लिए सूरज,
दूर गगन में चिर प्रतीक्षारत तारागण,
चाँदनी के आँचल में छुपता चाँद,
सभी का साक्षी रहा हूँ मैं-
मानव की उत्पति से वर्तमान तक की
विकास यात्रा-
पीढियों से दर्ज है रेशे-रेशे में मेरी।
मैने देखा है-
निरीह,निर्लिप्त,निश्छल और सहमे हुए
मानव को महामानव बनते हुए-
कला,साहित्य,दर्शन,विज्ञान की प्रगति को,
अग्नि,पहिये से लेकर अंतरिक्ष को नाप लेने वाले अविष्कारों को,
मानव की दुनियां को मुट्ठी मे कर लेने की छटपटाहट को,
कभी न समाप्त होने वाली तितिक्षा को,
जिसकी पूर्ति के निमित्त उसने-
धरा व मानव को बांट दिया-
देश,धर्म,जाति,रंग,लिंग,घर
और न जाने कितने वर्गों में।
मेरी विकास यात्रा तो मानव से भी पहले की है-
मानव की उत्पति से पहले मेरी पीढियां,
न जाने कितने ही पतझङ देख चुकी है।
मानव के साथ-साथ मैने भी-
सरस्वती नदी के आब में सिंचित
शस्य-श्यामल भरपूर खेतों मे
आनन्द उत्सव मनाया,
और फिर देखा प्रकृति का रौद्र रूप भी -
जिसमें विलीन हो गई-
सरस्वती सहित मानव सभ्यता
और फैल गया-
रेत का विशाल समुद्र।
पर मैं खङा रहा सीना ताने-
बारिश के इन्तजार में मुरझाते पत्तों,
सूखती टहनियों को सांत्वना देते हुए।
तेज आंधियां और लू के थपेङो को भी,
समभाव से सहते हुए-
स्वयं को अनुकूलित करते हुए-
अपने ही में पैदा कर कसैला तेल,
बचाता रहा स्वयं को कीटों के आक्रमण से।
मैं जानता था कि समय के साथ नही चलने पर
मैं भी विलीन हो जाऊंगा-
रेत के महा समुन्द्र में,
जिसमे दफन है-
मानव सभ्यता की कई कहानियां।
मानव के जीवन को संवारने में-
पीढियां शहीद होती रही है मेरी।
उसे सुन्दर,सुविधापूर्ण बनाना ही मिशन रहा है-
हमारी जाति का।
प्रतिकूलताओं के बाद भी
लाल, पीले और संतरी रंग के फूल खिला-
मैं मरूभूमि का श्रृंगार कर,
मानव मन को हर्षित करता रहा हूँ ।
ये फूल रंजक के रूप में भी उपयोगी रहे है।
पत्तियों का काढा करता रहा है पाचन रोगों का निदान।
पर आज मै संघर्षरत हूँ अपना ही वजूद बचाने में।
जिस मानव के जीवन को संवारने में,
शहीद हुई पीढियां मेरी,
उसी के क्षुद्र स्वार्थों ने लगा दिया प्रश्नचिह्न-
मेरे अस्तित्व पर।
पर नादान नहीं जानता
मुझसे ही कायम है उसका अस्तित्व,
मैं नहीं रहा तो कौन देगा उसे
प्रतिकूलताओं से लङने का हौसला,
उत्कट जिजीविषा,
और सबसे बढकर अपने जीवन को सार्थक व सुन्दर बनाने का संदेश,
और फिर-
प्रकृति से खिलवाङ तो आमंत्रण देगा ही-
सभ्यता के विनाश को,
जिसका पहले भी साक्षी रहा हूँ मैँ।
9 comments:
शब्दों के सुंदर प्रयोग के साथ वास्तविक कथा यात्रा वृतान्त--------
सृष्टि की सुंदरता समन्वय में
और
विकास संरक्षण में।
वर्षों बाद शाब्दिक शक्ति के दर्शन कर रहा हूं आपमें, एतद् शुभकामनाएं देना लाज़मी हो जाता है।
शुभकामनाएं-------
कथा जारी है, अगले सोपान पर मिलने का
इंतजार रहेगा------
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रोहिड़ा को लेकर आपका काव्य-संवाद शानदार बन पड़ा है।
बधाई-----
संरक्षण की जरूरत को आपने समझा, यह तो और भी श्रेष्ठ कृत्य है।
great literary writing..need aplauds. good...keep it up.
बहुत ही गहराई है आपकी बातो में ...... और दूरदर्शिता भी ... साईकिल के बारे में आपके विचार इसी दूरदर्शिता का परिणाम है
प्रशंसनीय प्रस्तुति
समूचा राजस्थान गूँज रहा है। बधाई!
शब्दों को बहुत ही सुन्दरता से इस कविता में पिरोया है आपने
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